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चिटकती पपड़ियाँ / शेखर सिंह मंगलम
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अपनेपन का बिगड़ा सुर, लय, ताल
मैंने अस्पतालों में देखा है
मैं हकीक़त कह रहा
तुमने दुनियां ख़्यालों में देखा है
कभी गए हो क्या क़ैदखाने
जहाँ कोई नहीं आता
अपना रिश्ता निभाने
मैंने रिश्तों की चिटकती पपड़ियाँ
जेल की दिवालों में देखा है
जिनकी जवानी ज़िम्मेदारियों में
दम तोड़ी और
बुढ़ापा उम्र का शजर छोड़ रहा
उनको आँसू छिपाते रुमालों में देखा है
हड्डी-चमड़ी घिस-घिस कर
पढ़ाए लिखाए बच्चों को
अच्छे मुस्तक़बिल लिए मगर
मैंने खुदगर्ज़ियों की हद
उन बच्चों के माँ-बाप से किए गए
”कि किए क्या“ सवालों में देखा है
मैं हक़ीक़त कह रहा
तुमने दुनियां ख़्यालों में देखा है
मैंने मज़बूत से मज़बूत रिश्तों को अक्सर
बाद काम निकलने
बे-हिसी के पातालों में देखा है...