भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आस्था - 66 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:24, 1 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मानव
इस विज्ञान की दुनिया में
कितना मूर्ख है
नहीं था मालूम
क्योंकि
वह अनभिज्ञ है
उस दुष्प्रभाव से
जो
मानवता के गर्भ में
पल रहे
शिशु पर पड़ रहा है
अपनी ही
संकुचित आस्था के कारण
और आगन्तुक का विकास
थमकर
रह गया है।

डर है
कहीं वह इतना
संकुचित
न हो जाए
गर्भ उसे
धारण करने से ही
कर दे, इन्कार।