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एक द्वीप / दिनेश कुमार शुक्ल

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एक द्वीप
आकाश के नीले कंगरों
से लेकर
पाताल के तहखाने तक
हम व्याप्त हो सकते हैं
पक्षियों और सर्पों की तरह

फूलों के रंग तमक-तमक
बहस कर रहे हैं
रौशनी के कौतुक में-
ज्ञान जैसी जगमगाती
ओस की एक बूँद
छलाँग भरता एक बछड़ा
अँधेरे के कोट-परकोट लाँघता
कूदकर घुस जाता है
तिलिस्म के महल में
और मुग्ध कर देता है
अपनी कमसिनी से
वहाँ भटकती अभिशप्त
आत्माओं को

पसीजती हैं युगों पुरानी
पत्थर की दीवारें
उनसे रिस-रिस कर बहता है दूध
रत्नों की तरह जगमगाते हैं
बिखरे भग्नावशेष

मैं चलता हूँ
बछड़े के साथ-साथ
उसकी गुलाबी त्वचा के
आलोक में
तैरता पार करता हूँ
अंध महासागर
और आ पहुँचता हूँ
तुम्हारे और अपने
बिल्कुल हमारे निजी समय के द्वीप में
वहाँ वृक्ष हैं
जिनमें फलों की तरह
गुच्छों में झूल रहे हैं
रस भरे चन्द्रमा ही चन्द्रमा