उड़ते सारस / दिनेश कुमार शुक्ल
उड़ते सारस
जब
उड़ते निकलते हैं
सारस आकाश में
तो उनके पीछे
उड़ती चलती हैं कविताएँ-
हवा में भँवर भरती
हवा में डूबती
हवा में घुलती
अदृश्य होती और
फिर उतराती
तारों से टकराती
उड़ती चली जाती है कविताएँ
अब हम उन्हें नहीं
पढ़ पाते
जैसे हम नहीं पढ़ पाते
तमाम प्राचीन लिपियाँ
या जैसे अब नहीं पहचान पाते हम
कि कौन-सा तारा है
अरुन्धती, कौन-सा ध्रुव
कहाँ हैं कृत्तिकायें आकाश में
अब हम नहीं सुन पाते यह कविताएँ
जैसे हम नहीं सुन पाते
सामने वाली सीट पर बैठी
बीमार युवक की
माँ के हृदय में
गूँजती प्रार्थनाएँ और
थरथराता आर्तनाद
अब हमें इन कविताओं की महक तक नहीं लगती
जैसे हमें अब
न तो बसन्त की महक आती है
न पतझर की, न पावस की
न हमें आती है
अत्याचार की दुर्गन्ध
न जाने कब से
इसी तरह
न जाने कितनी कविताएँ
उड़ती चली जा रही हैं
हमारे आस-पास से
अनसुनी, अपठित, अनदेखी.