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सब गए समेट / दिनेश कुमार शुक्ल
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सूखी नदिया बलुअर खेत
आँख किरकिरी मुँह में रेत
कहो फलाने कैसी पाती
पाई जो तुम भये अचेत
कुर्की की डिगरी लाये हैं
काले गोरे भूत परेत
बीस महकमा दो सौ हाकिम
छै सौ कोड़े नौ सौ बेंत
जबरा छीने रोटी-पानी
पास बची ना कौड़ी कानी
परदेसी पूँजी की नागिन
गरदन-गरदन रही लपेट
टेढ़ी चाल चले सो राजा
सीधी चले सो खाय चभेंट
प्रजातन्त्रको उठा ले गए
बड़े सेठ के बली लठैत
टका खरीदै ज्ञानी-ध्यानी
छीनै सबकी बोली-बानी
राजा की भाषा में कहना
बहुत कठिन है राम-कहानी
बार-बार सपनों को, खेतों
को जब देखा मटियामेट
पार नहीं पा सके फलाने
देह गेह सब गये समेट