दुख-सुख-प्रेम तरल तिरबेनी / दिनेश कुमार शुक्ल
दुख-सुख-प्रेम तरल तिरबेनी
दुख-सुख-प्रेम की
तरल-तिरबेनी हैं
तीनों ही तरलताएँ
आठों याम जीवन में
व्यापती हैं पोर-पोर
घुसती हैं कभी
जैसे धूल हो किताबों में
लोहे पर जंग और
चेहरे पर झुर्रियाँ-
पता रहता है कि हो रहा है ऐसा
किन्तु रोकी नहीं जा सकती यह व्याप्ति
और कभी अंतःस्राव-सी
भरती है भीतर ही भीतर
फलों में जैसे रस
घाव में मवाद, आँखों में आँसू
और जीवन में मृत्यु
और कभी अकस्मात्
फट भी पड़ती हैं
तरलताएँ अप्रत्याशित-
जैसे जन-क्रांति का ज्वार
या पहली नजर का प्यार-
भक् से भरती हुई अपना प्रकाश
समस्त देश-काल में
और अन्त में हमेशा
होता है यही कि
व्यापते-व्यापते
नहीं रह जाता अपना
कोई दुख सुख या प्रेम-
सब कुछ होता है सभी का,
भरता है सब कुछ
सब कुछ में बूँद-बूँद
दुख-सुख-प्रेम तरल-तिरबेनी।
जीवन खेलइ साँप-नसेनी।।