अतल से / दिनेश कुमार शुक्ल
संसार की धड़कन है वह
मगर चुप है
भरा है कण्ठ तक
मगर चुप है
टपकती रात-दिन अटूट
एक दुख की धार
पुराने घाव-सा
पकता है तपकता ये विचार-
वह क्या करेगा
अगर कल का दिन भी
यूँ ही रहा
गरजता रहा कल भी अगर
जिन्दगी का भवसागर!
ऐसे में नहाना ख़ूदी में
मन के गगन में उड़ना,
रचना में डूब जाना और
अपनी अगन में पकना-
अटूट सिलसिला है
छोटी-छोटी चीजों का
जिसमें वह खुद को
लगाये रखता
खुद अपनी रौशनी के
अँधेरे में अभी डूबा नगर
तमाम चीजें सजी हैं
यहाँ दुकानों में
अभी ले लो
बहुत सस्ते में बिक रही आस्था
बहुत-सी और भी
इस तरह की
सस्ती चीजें
तमाम दुनिया में फैला हुआ
मीना-बाजार
देख कोई नहीं पाता है मगर
चल रहा चारों तरफ नरसंहार
अभी जो है सभी होगा मिस्मार
चढ़ रहा पानी, तेज-रौ है धार
आकाश की गंगा के
फट रहे हैं कगार
सृष्टि के तल से
अतल से
उठी है एक लहर
कोई ब्रम्हाण्ड की बिसरी हुई धुन है
जो गुनगुना रहा है समय
एक खिंचता हुआ अलाप
विलंबित में अभी
ये किसी और तरह की आवाज़
जिसे मैं सुन रहा हूँ पाँवों से
ये किस नदी का जल
जिसे पीती आँखें
ये किसी और लोक का सूरज
कि जिसे देख रही है आत्मा
वह सत्य जिसे
साधकों ने साधा था
वो तो कपड़े की एक गुड़िया थी
जिसकी आँखें बनी थीं काजल से
आकाश से पाताल तक
फैली हुई कविता थी
जिसे उसने पढ़ा
पढ़ लिया जब से
तब से वो चुप है!
अजब सैलानी था
फुटपाथ पर सोने वाला
चल दिया नींद में ही
छोड़ गया अपना शरीर
एक थिगली, फटा कम्बल व टीन का डिब्बा-
सब छोड़ गया
इसे भी तुम रख लो,
उठा और
उठ के चल दिया वो
अपनी शताब्दी की तरह
पर इतना है कि
उसकी आँख से छिटकी है अभी एक किरन-
वैसे अँधेरा घुप है!
आकाश की धड़कन है वह
मगर चुप है!
भरा है कण्ठ तक
मगर चुप है!