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आँखों का संगीत / दिनेश कुमार शुक्ल

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चार शताब्दियों की धुंध में
डूबे ये प्राचीर
छोटे-छोट टापू थे उस प्रलय पयोधि में
आ लगी थीं जिनके तट पर
प्रलय में बहती कुछ जोड़ा आँखें

बहती हुई आ सकती थी बाढ़,
अधबुझी बीड़ी में छुपकर
लपटों की पताका उड़ाती
अचानक आ सकती थी बाढ़ किसी भी क्षण

आसपास सारी संभावना में
ठाठे भर रही थी बाढ़
भूख के तेजाब में गलती
दुःस्वप्नों में टँगी
उन आँखों की पुतलियाँ
फिर भी उठती चली आती थीं
आकाश की पेंदी से
उभरते सितारों-सी

उन पुतलियों पर
उस वक्त मैं भी था-
उनकी टलमल पर फिसलती
मेरी आत्मा
सीख रही थी
पानी पर चलने का रहस्य
पुतलियों की आंशका में भी
था एक तेवर
होता है जैसा भेड़िये के मुकाबिल
नीलगाय की आँखों में,
वहाँ था बचाव का बाँकपन
होता है जैसा बाज से बचकर
उड़ान कातते बटेर के डैनों में

आँखों की काँपती आशंका में
इतने रंगों की पर्तें थीं
कि हार जाते इन्द्रधनुष-
अंधेरे से जन्म-जन्मान्तर के परिचय
की कालिमा में
छुपा था अरुणोदय,
उन आँखों की रेत में
हरीतिमा थी करील की,
बीमारी के पीलेपन में भी
बीच-बीच चमकता नीला आकाश था

जितना भय था उन आँखों में
उसके बरअक्स
उतना ही कुछ और भी था
समुद्र-सा गहरा
पृथ्वी-सा विस्तृत
समय-सा प्राचीन
पहाड़-सा अडिग

झुग्गियों के द्वीप समूह में
व्याप्त था
आँखों का मौन-संगीत
भरता संसार को-
मस्जिद और कथावाचक के
लाउडस्पीकरों से उठते
विलाप को
डुबाता अपनी गहराई में!