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चली गई आवाजें / दिनेश कुमार शुक्ल

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चली गई आवाजें
आवाजें हवा में नहीं हैं
कँपकँपी भर है
आवाजें तो कब की बीत चुकीं-
गलकर तेजाब में
टपकती बूँद-बूँद
सूख गई आवाजें अतृप्ति की रेत में

सम पर आती हुई एकरस
पठार-सी लुप्त लय,
धुँधले भूखण्ड के फैलाव में
विरल होते शब्द
आवाज कविता में भी नहीं है

बातचीत में तो नहीं ही हैं आवाजें-
हैं, तो आँखें कुछ तौलती-सी,
कीमत आँकता चौकन्नापन
पैंतरे बदलता एक दाँव

अकस्मात्
आवाजें गईं उधर, इधर चले गये शब्द
अर्थों को लिये-दिये
और मूक नाटक का भी ये आखिरी दृश्य

पृथ्वी से अभी एक उल्का टकरायेगा
और कहीं कोई आवाज़ भी नहीं होगी