भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोचती रह गई ज़िन्दगी / देवेन्द्र आर्य

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:27, 22 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेन्द्र आर्य |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितनी लातें मारी होंगी पेट में
और कितनी पेट पर पता नहीं
पिता तो बन सकता हूँ माँ नहीं
काश बेटी होता तो यह दर्द महसूस कर पाता

सोचा था पुत्र के रूप में जो नहीं कर पाया
पिता बनकर करुॅंगा
कोई पुत्र क्या चाहता है पिता से सोचूॅंगा
सोचता ही रहा
रह गया सोचता

सोचा था प्रिया को जो नहीं दे पाया पत्नी को दूँगा
मगर उसे वह भी न दे पाया जो उसे दिया था
चालीस की उम्र को बीस कैसे कर देता

तुम्हें पालने में जो ग़लतियाँ हुईं बेटे
भरपाई करुॅंगा एक दिन तुम्हारे बच्चे से
सोचा था
सोचा था वेतन की मजबूरी ने बेटे से जो जो छीना
पेंशन से वो वो दूॅंगा पोती पोतों को
मगर तुमने तो मौक़ा ही नहीं दिया देवांश  !

मेरी कविताओं ने तुम सबका जो समय कुतर लिया
कहाँ से लाऊँ  ?

अब तो ख़ैर सोचना भी बेमानी है
न लेने वाले रहे
न देने वाले के बस का है अब