भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बर्लिन की दीवार / 32 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:21, 18 जून 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये बहुत भावुक होते हैं।

यदि ऐसा न होता
घरों की बैठक में
ये पत्थरों की मूर्तियाँ
या इनसे बने सजावट के टुकड़े
यदि सही जगह पर न रखे जाएं
तो बैठक के निखार में
एक दाग सा लग कर रह जाता है।

तभी तो ये पत्थर समाज में
सही स्थान की चाह रखते हैं
वरना स्थान की महत्ता
अपने आप में
खत्म होकर रह जाती है।

तभी तो बर्लिन दीवार के
ये ढ़हते टुकड़े पत्थरों के
भावुक होकर कह रहे हैं
हमें सिर्फ बैठक की
सजावट तक ही सीमित न रखो
जरूरत है इन्हें
दिलों में, सजाने की।
ताकि निखार आ सके
हर उस चेहरे पर
जो करता है प्यार मानवता से।