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प्रीतम रही निहार / प्रेमलता त्रिपाठी

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नैन भरे अँसुवन में ठाढ़ी, प्रीतम रही निहार ।
कैसे देखूँ साजन तुमको, मन में भरे गुबार ।

मैं तो हारी राह तकत जब,पावस होती रात ।
जाग फिरूँ छन उठि उठि धाऊँ,दर्पण देखत हार

टीस उठे तन सरसों झूमत,बौरन लगे रसाल ।
मन अगन जगाये टेसू के,पात झरे अंगार ।

डूब रही मँझधारे नौका, आकर मोहि सँभाल।
प्रीति लगाई ऐसी प्रियवर,गहर जमुन जलधार

लखि लखि पथ परदेशी आवन, ढुरे नैन अवसाद,
लाल लिए कनिया में प्रीतम,जीवन के आधार ।