भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उर्मि सुहाती रही मुझे / प्रेमलता त्रिपाठी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:30, 25 जून 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमलता त्रिपाठी |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सागर विशाल उर्मि सुहाती रही मुझे ।
लहरें उछाल संग रिझाती रही मुझे ।

करती रही विभोर सलोनी सुबह सदा,
पावस सरस बयार जगाती रही मुझे ।

है अस्त या उदीय धरा संग हो गगन,
रवि लालिमा सुहास लुभाती रही मुझे ।

संघर्ष में विवेक हताशा मिटा हृदय,
राहें वहीं अनेक बुलाती रही मुझे ।

लालच बुरी बलाय तृषा जो मिटे नहीं,
परिणाम वह सदैव दिखाती रही मुझे।

यदि लक्ष्य हो विकास नियामक सही मिले,
होगा सफल समाज सिखाती रही मुझे

जीवंत हो सप्रेम लुटाकर मिले खुशी,
कटुता करे विनाश बताती रही मुझे ।