भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मशालें / मनमोहन
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:35, 6 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनमोहन |संग्रह= }} <poem> मशालें हमें वैसी ही प्यारी ह...)
मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर
मशालें जिन्हें लेकर
हम गाढ़े अंधेरों को चीरते हैं
और बिखरे हुए
अजीजों को ढूंढते हैं
सफ़र के लिए
मशालें जिनकी रोशनी में
हम पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हैं
वैसे ही पनीले रंग हैं
इनकी आंच के...जैसे
हमारी भोर के होंगे
लहू का वही गुनगुनापन
ताज़ा...बरसता हुआ...
मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर
(1976)