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सूरज के वक्ष झुकी / रामकुमार कृषक

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सूरज के वक्ष झुकी
अनब्याही शाम
डैशों-से पसर गए
मानसिक विराम !

शैशव की
नग्नता बढ़ी
यौवन की
देहरी चढ़ी,

एक चक्र
चल चुकी घड़ी
हो गई अनाम !

पश्चिम का
पूछकर पता
पूरब की
नब्ज़ लापता,

एक पुण्य
पाप-अनुगता
खो रहा मुकाम !

10 सितम्बर 1972