सूरज के वक्ष झुकी
अनब्याही शाम
डैशों-से पसर गए
मानसिक विराम !
शैशव की
नग्नता बढ़ी
यौवन की
देहरी चढ़ी,
एक चक्र
चल चुकी घड़ी
हो गई अनाम !
पश्चिम का
पूछकर पता
पूरब की
नब्ज़ लापता,
एक पुण्य
पाप-अनुगता
खो रहा मुकाम !
10 सितम्बर 1972