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कहाँ रहा है पेट / रामकुमार कृषक
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कहाँ रहा है पेट
पट्टियाँ कितना और कसें
टँगी हुई आँखें अम्बर में
कितना और धँसे !
हड्डी - हड्डी देह
देह को ईंधन हुई
हवा
हाथों के पौरुख में ख़ाली
टूटा हुआ तवा,
हर तनाव भीतरला बाहर
उभरी हुई नसें !
मुट्ठी–भर
हो चला इरादा
गज पर गाज गिरी
घाटी घूम पहाड़ी चढ़ते
मुचिया रही धुरी,
कुछ ख़िज़ाब - सा भी तलाशतीं
भीगी हुई मसें !
–
21 सितम्बर 1975