भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीढ़ी / सुकान्त भट्टाचार्य / उत्पल बैनर्जी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:45, 15 अगस्त 2022 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम सीढ़ियाँ हैं —
तुम हमें पैरों तले रौंदकर
हर रोज़ बहुत ऊपर उठ जाते हो
फिर मुड़कर भी नहीं देखते पीछे की ओर
तुम्हारी चरणधूलि से धन्य हमारी छातियाँ
पैर की ठोकरों से क्षत-विक्षत हो जाती हैं — रोज़ ही ।

तुम भी यह जानते हो
तभी कालीन में लपेट कर रखना चाहते हो
हमारे सीने के घाव
छुपाना चाहते हो अपने अत्याचारों के निशान
और दबाकर रखना चाहते हो धरती के सम्मुख
अपनी गर्वोद्धत अत्याचारी पदचाप !

फिर भी हम जानते हैं
दुनिया से हमेशा छुपे न रह सकेंगे
हमारी देह पर तुम्हारे पैरों की ठोकरों के निशान
और सम्राट हुमायूँ की तरह
एक दिन
तुम्हारे भी पैर फिसल सकते हैं !

मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी