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फागुन गाता है / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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अँधियारी अलकों का सावन
मन भरमाता है।
कुलाँचें भरता विरही मेघा-
भी शरमाता है।
इनकी सौंधी वास न जाने
क्या-क्या टोना कर देती हैं।
हाथ बढ़ाकर छू न पाऊँ,
इतना बौना कर देती हैं।
घुँघराली चन्दन-छाया में
तन खो जाता है।
मुख़े के इस खिले चाँद को
चुपके चूम-चूम लेतीं
अधरों पर इतरा-इतराकर
खुशबू के उपवन बो देतीं।
बँधा लाज से अल्हड़ यौवन
फगुन गाता है।
(15-7-1978: अरुण-मुरादाबाद 1982)
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