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तेरे अधरों के सुर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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मेरे अधर की बाँसुरी
तेरे अधर के सुर मिलें,
गुंजित हो धरा - गगन ये
मन -प्राण सुरभित हो खिलें।
     कण्ठ लग जाओ कभी जो
    यह शीत मन का दूर हो।

जब सफ़र हो आखिरी तो
तुम्हीं मेरे पास रहना ।
कह सके ना जो उम्रभर
सब वह तुमसे है कहना।
  मुझे वह हाला पिलादो
  ये मन मगन, तन चूर हो।

मरुभूमि की प्यास मेरी
और तुम हो निर्मल नदी
अँजुरी भर न पी सके हम
कितनी बड़ी यह त्रासदी!
   है बस इतना ही कहना
   'नयनों का तुम्हीं नूर हो।'
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