भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
डिग्रियों के नाक पर / रामकुमार कृषक
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:52, 9 जनवरी 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकुमार कृषक |अनुवादक= |संग्रह=स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
डिग्रियों के
नाक पर चश्मे चढ़े हैं
हम खड़े हैं
लाइनों में नौजवानों की !
हाथ में अख़बार
बेकारी ज़हन में
और आँखों में लबालब
ख़ुश्क पानी
इस क़दर बीमार
भूले मुट्ठियों को
और चाहत देहरी की निग़हबानी,
टूटते / हर पल बिखरते
हम पड़े हैं
पाकिटों में अक़्लवानों की !
शोरगुल / परिहास
मेले मण्डपों के
और चेहरे चीन्हतीं
चौकस निगाहें
ख़ूब ! क्या इतिहास
क्या स्वागत हमारा
उठ रहीं ख़ुद गाव–तकिए
छोड़ बाँहें,
चौंकते / कुछ कसमसाते
हम बँधे हैं
कुर्सियों से मेज़बानों की !
25-3-1976