भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जनता की रोटी / बैर्तोल्त ब्रेष्त / मोहन थपलियाल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:16, 21 मई 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बैर्तोल्त ब्रेष्त |अनुवादक=मोहन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इंसाफ़ जनता की रोटी है
वह कभी काफ़ी है, कभी नाकाफ़ी
कभी स्वादिष्ट है तो कभी बेस्वाद
जब रोटी दुर्लभ है तब चारों ओर भूख है
जब बेस्वाद है, तब असन्तोष ।

ख़राब इंसाफ़ को फेंक डालो
बगैर प्यार के जो सेंका गया हो
और बिना ज्ञान के गूँदा गया हो!
भूरा, पपड़ाया, महकहीन इंसाफ़
जो देर से मिले, बासी इंसाफ़ है !

यदि रोटी सुस्वादु और भरपेट है
तो बाक़ी भोजन के बारे में माफ़ किया जा सकता है
कोई आदमी एक साथ तमाम चीज़ें नहीं छक सकता ।

इंसाफ़ की रोटी से पोषित
ऐसा काम हासिल किया जा सकता है
जिससे पर्याप्त मिलता है ।

जिस तरह रोटी की ज़रूरत रोज़ है
इंसाफ़ की ज़रूरत भी रोज़ है
बल्कि दिन में कई-कई बार भी
उसकी ज़रूरत है ।

सुबह से रात तक, काम पर, मौज लेते हुए
काम, जो कि एक तरह का उल्लास है
दुख के दिन और सुख के दिनों में भी
लोगों को चाहिए
रोज़-ब-रोज़ भरपूर, पौष्टिक, इंसाफ़ की रोटी।

इंसाफ़ की रोटी जब इतनी महत्वपूर्ण है
तब, दोस्तो, कौन उसे पकाएगा ?
दूसरी रोटी कौन पकाता है ?
दूसरी रोटी की तरह
इंसाफ़ की रोटी भी
जनता के हाथों ही पकनी चाहिए
भरपेट, पौष्टिक, रोज़-ब-रोज़ ।

(1953-56)

मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : मोहन थपलियाल