भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो जो कॉफी उधार है तुम पर / अर्चना अर्चन

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:17, 5 जुलाई 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्चना अर्चन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो जो कॉफी उधार है तुम पर
महज़ एक मग नहीं है
भाप उगलता हुआ
वक्त है
वो जो संग तुम्हारे
बिताना है मुझे
हौले-हौले चुस्कियाँ लेते हुए
उस वक्त को लंबा
और भी लंबा खींचना है मुझे
हंसना मत मुझपर
गर ठंडी हो चुकी उस कॉफी को भी मैं
ठंडा. और भी ठंडा होने दूं
और फिर पियूं भी,
तो यूं
मानो अब भी हो बहुत गर्म
बस समझ जाना
अभी और वक्त बिताना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ
वो जो कॉफी उधार है तुम पर
महज बहाना नहीं है,
तुमसे मुलाकात का
एक अहसास है
नया
बेहद खुशनुमा सा
उन पलों को
जी भर के जीना है मुझे
वो जो कॉफी उधार है तुमपे
बस इतना समझ लो
चंद सांसें उधार हैं तुमपे!