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अनुगूँज अकेलेपन की / विचिस्लाफ़ कुप्रियानफ़ / दिविक रमेश

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हो सकता है प्यार एकतरफ़ा
निराधार भी हो सकता है, ईर्ष्यावश,
वफ़ादारी रह सकती है अनुत्तरित ।

पर विच्छेद
आपसी ही होता है हमेशा,
हमेशा आपसी ही होता है अकेलापन ।

किसी अकेले की
करुणाभरी आह का –
कहाँ हो तुम ?
और तुम ? तुम कहाँ हो ?
जवाब देती है
एक अनुगूँज सौम्य ।