भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम भौतिकता में डूबे तो / आनन्द बल्लभ 'अमिय'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:22, 15 सितम्बर 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आनन्द बल्लभ 'अमिय' |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम भौतिकता में डूबे तो गाँव छोड़ कर चले गये।
छतरी लेकर वटवृक्षों की छाँव छोड़ कर चले गये।

गाँव हमारा देवालय-सा गुंजित होते वेद जहाँ।
गाँव हमारा संगम तीरथ मिट जाते हैं खेद जहाँ।
फिर भी हम आंकठ डूबकर भौतिकता में खोये हैं।
बोध वाङ्मय सिरहाने रख चिर निद्रा में सोये हैं।

पश्चिम से अभिमुख होने के दाँव छोड़कर चले गये।
छतरी लेकर वटवृक्षों की छाँव छोड़ कर चले गये।

रोज सवेरे पनिहारिन ताजा जल लेकर आती हैं।
पूजा कर, राधामोहन को मट्ठे पर नचवाती हैं।
देहरी पर बैठी अम्मायें प्रात: मंगलगान करें।
भोजन पहले नित्य जहाँ पर गोधन, कागा, श्वान करें।

स्वर्गलोक-सा परम देव के पाँव छोड़ कर चले गये।
छतरी लेकर वटवृक्षों की छाँव छोड़ कर चले गये।

धर्म, कर्म को त्याज्य बना अभिनव प्रयोग में झूल गये।
गायत्री, यज्ञोपवीत को भूले मद में फूल गये।
भूल गये हम चकाचौंध में गाँवों की वंशावलियाँ।
निज पितृों के धर्म-कर्म से ओत-प्रोत शुभ जीवनियाँ।

नागफनी स्वीकारी पीपल ठाँव छोड़कर चले गये।
छतरी लेकर वटवृक्षों की छाँव छोड़ कर चले गये।