दुपहरी के मौंन हैं स्वर / आनन्द बल्लभ 'अमिय'

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आज मन की बेकली से, पूछता पंछी हृदय का,
क्यों हमारे गेह में यूँ, दुपहरी के मौन हैं स्वर?

ठूंठ होते जा रहे हैं, फल लगे तरुवर पुरातन,
और सुरभित तुलसियों पे, कर न पाये आत्म मंथन,
अद्य मुझको अल्पता के, चुभ रहे हैं शर निरंतर,
क्यों हमारे गेह में यूँ, दुपहरी के मौन हैं स्वर?

क्या कमी थी रह गई जो, पुण्य अर्जित खो गये सब,
मत्तता में चूर दशरथ, राम को बनवास दें अब,
काल ही तो चल रहा है, वक्रता से चाल मंथर,
क्यों हमारे गेह में यूँ, दुपहरी के मौन हैं स्वर?

मिल नहीं पाये कभी हम, देहरी के देवता से,
प्रश्न करते भी किसे हम? और किसको नेवता दें?
खोजने को जा रहें अब, हम सभी खामोश उत्तर,
क्यों हमारे गेह में यूँ, दुपहरी के मौन हैं स्वर?

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