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दूर बाँज के जंगल में / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
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दूर बाँज
के जंगल में काफल
का तरु अकुलाया है।
परदेशी की
बाट जोहते
आँखे मलता फिरता काफल।
कभी आश की
पुरवाई के
हाथ संदेशा भेजे काफल।
वहीं खड़ी सुरई
डाली पर
इठलाती तितली अलबेली।
ने मध्यम स्वर में
काफल को
हाल शहर के बतलाया है।
परदेशी तुम
कब आओगे
छोड़ शहर का दूषित पानी।
बंद पड़े हो
छोटे घर में
क्या तुमको है कालापानी।
बिना तुम्हारे
आज गाँव, वन
में सन्नाटा घूम रहा है।
और मेरी जड़
के नीचे उसने अपना घर बनवाया है।
समय समय का
फेर बताकर
ज्योतिष कन्नी काट रहे हैं।
कुछ पूछूँ ग्वालों
के खातिर
तो फिर मुझको डाँट रहे हैं।
बेडू, पुलम, हिसालू
के सँग
काफल ने फिर सभा बिठायी।
लेकिन निष्कर्षों
के बदले
अापस में मन बहलाया है।