भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दस दोहे - 2 / महेश कटारे सुगम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:13, 27 अक्टूबर 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश कटारे सुगम |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1

कैसी कैसी आफ़तें, कैसे अला अठेन,
घर में आवे झूंक रए, मुद्दत सें सुख चैन ।
(अला अठेंन=दुर्योग)

2

गाँज बने हैं गौंजना, बिखरी बिखरी घार,
परे परे अब देख रए, सबरे पैरेदार ।
(गाँज=घास के पूलों का व्यवस्थित ढेर / गोजना=तितर बितर घास / घार=समूह)

3

बगरा दऔ है रायतौ, कुत्ता रए हैं चाट
लगी लगाई उठ गई, रंग बिरंगी हाट ।
(बगरा=फैलाना / रायतौ=छाछ का पेय)

4

करतई रेंहें मौत तक, लिखवे वारौ काम,
चाहे गारीं दो हमें, चाहे देओ इनाम ।

5

का होनें है का पतौ, मर जावे के बाद
ऊँगें बनकें बीज हम कै, फिर हुइएँ खाद ।

6

देखे जाकें शैर में, रैवे वारे ठाट,
जितै बहू कौ पीसवौ, उतईं ससुर की खाट ।

7

ऐसे हैं जे मतलबी, खूब करत हैं मौज,
न्यारे मयरी में रहें, और खीर में सौंज ।

8

इक्कर इनकी चलत है, सैवे हम मजबूर,
देखत नईंयाँ कोउ खौं, बेरी सौ रये झूर ।

9

माढ़त हैं जे चूंन सौ, सतुआ सौ रए घोर,
हम बुकरेलू शेर, वे घींचें रए मरोर ।

10

पढ़े लिखे मौड़ा सबई, रए चप्पलें टोर,
नईं मिल रई है नौकरी, कुत्ता रए कड़ोर ।