भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दस दोहे - 4 / महेश कटारे सुगम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:15, 30 अक्टूबर 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश कटारे सुगम |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1

हो रई आज चुनाव में, ऐसी लूट खसोट,
जी के जित्ते लठ्ठ हैं, ऊ के उत्ते वोट ।

2

सरपंची जब सें मिली बदल गए सब ठाट,
सचिव और सरपंच मिल, कर रए बन्दरबाँट ।

3

गाँव अखाड़ों बन गऔ, डण्ड रए सब पेल,
सबरे खेलत फिरत हैं, सरपंची कौ खेल ।

4

सैकराक मुर्गा कटे, ख़ूबई बटी सराब,
भए गंगा के क़ौल जब, जीते तबई चुनाव ।

5

चरपट्टा ऐसौ मचौ, दूनर हो गऔ गाँव,
घर घर में जा कें परे, मुखिया जू नें पाँव ।

6

हमनें खूबई देख लये, ई सत्ता के ठाट,
काल बिछाई ती खुदई, आज उठा रए खाट ।

7

खुशी-खुशी में भूल गए ठौर, ठिकानौ, गैल,
फोर दऔ है पोतला, बसकारे के पैल ।

8

कै,कै कें तौ हार गए, सुन सुन फूटे कान,
पर हिस्सा में आऔ नईं,जनियन खों सम्मान ।

9

मैया, देवी, लच्छमी, का का ऊसें कैत,
मनौ घरन में देख लो, दासी बनकेँ रैत ।

10

पथरन की देवी पुजें, और चढ़ावें खीर,
घर की देवी खों मनौ, पैरा दई जंजीर ।