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शायद अनगिनत किरणें / विजयदेव नारायण साही

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शायद अनगिनत किरनें
मेरे कंधों पर
भारी शहतीरों की तरह रखी हुई हैं

मैं उन्हें देख नहीं पाता
लेकिन खड़े होते ही
हड्डियों को तोड़ने वाला दर्द महसूस करता हूँ ।