Last modified on 15 नवम्बर 2023, at 23:45

अपनी आदत से बाज आये हैं / हरिवंश प्रभात

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:45, 15 नवम्बर 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंश प्रभात |अनुवादक= |संग्रह=छ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अपनी आदत से बाज आये हैं।
घात पर घात जो लगाये हैं।

दुःख तो आता है और जाता है,
सुख तो लगता है दुःख के साये हैं।

पढ़ने-लिखने में जो लगा चश्मा,
लगता दिन भर उसे लगाये हैं।

जब से गंगा नहा के आया हूँ,
रोज लगता है हम नहाये हैं।

अस्थि माता की थी पीपल नीचे,
मुझको लगता वहीं भुलाये हैं।

घर की सांकल बजा के आती हवा,
ऐसा लगता है मेहमां आये हैं।

कुछ तो ऐसा है या नहीं कुछ भी,
कुछ में सब कुछ लगा समाये हैं।

सुन लो ‘प्रभात’ की कविता को
रुचिकर किस क़दर बनाये हैं।