भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेहतर दुनिया के लिए / रजत कृष्ण

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:12, 26 नवम्बर 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रजत कृष्ण |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पत्तियाँ समझती हैं
कब झड़ना है उन्हें
डगाल से
कि फूटें कोंपले नईं ।

जानती हैं चिड़िया सभी
कितना सकेलना है
दाना-पानी
कि बची रहे चियाँ उनकी
भूख-प्यास से ।

गाय, बैल, भैंस
ऊँट, बन्दर, भालू
चीते सहित चौपाए सभी
जानते कि कितना चाहिए
शावकों को दूध
और स्वयं के लिए
चारा कितना
कि चलता रहे जीवन

बड़ी समझदार मानी जाती है
आदमजात
फिर भी तय नहीं कर पाती
वह प्रायः
कि कितनी चाहिए रोटी
कितना कपड़ा
और मकान कितना बड़ा ।

सोचता हूँ —
कितना अच्छा हो
कि आदमी रुपयों को
पत्तों की तरह समझे
चिड़ियों की निगाह से देखे
दाना-पानी को ।
गाय-बैल और ऊँट आदि की
निगाहों से परखे
मकान को ।