भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीवन से रू-ब-रू / राम सेंगर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:56, 25 जनवरी 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राम सेंगर |अनुवादक= |संग्रह=ऊँट चल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जीवन से रु-ब-रु,
अब तक जो जिया उसे
और-और रुँधकर
एक नई शक्ल दे कुम्हार !
आँखो की गोखरू
निकालकर हथेली पर
रखे-रखे घूम -झूम
घटना के तौर पर कभी न कभी कूदेगा
पर्वत से क्षण का लंगूर ।
जीवनगत सच की
इस उफनाती धार में
फेंककर स्वयं को
अनुभूतियाँ इकट्ठी कर
गुम्बद का मौन
मुखर होना है एक दिन ज़रूर ।
बदली के गूदड़ फैलावों में
समाधान खोज रहा जो लंगड़ी प्यास का ,
उस देशाचार को नकार !
जीवन से रु-ब-रु,
अब तक जो जिया उसे
और-और रुँधकर
एक न शक़्ल दे कुम्हार !