भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बोझ सदी के ढोए / मधु शुक्ला
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:25, 30 जनवरी 2024 का अवतरण
विश्वासों की दरकी गागर,
अब किस घाट डुबोए ।
सोच रही धनिया किसके
काँधे सिर धरकर रोए ।
फुर्र हुए आशा के पंछी,
मौन हुईं सब डालें ।
लौट रहीं अनसुनी पुकारें,
पत्थर हुए शिवाले ।
तार -तार तन की चादर,
क्या धोए और निचोए ।
कभी बाढ़ से जूझे सपने,
और कभी सूखे से ।
लिये खरोंचें मौसम की,
दिन हुए बहुत रूखे से ।
बंजर रिश्तों में आख़िर,
कितने समझौते बोए ।
आगे कुआँ दुखों का,
पीछे चिन्ताओं की खाई ।
हुई न घर में शुभ - शकुनों की,
बरसों से पहुँनाई ।
दो पल के जीवन की खातिर
बोझ सदी के ढोए ।