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कहे कौन उठ दोपहर हो गई / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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कहे कौन उठ दोपहर हो गई।
जगा सूर्य जब भी सहर हो गई।
लगा वक़्त इतना उन्हें राह में,
दवा आते-आते ज़हर हो गई।
बँधी एक चंचल नदी प्यार में,
तो वो सीधी-सादी नहर हो गई।
समंदर के दिल ने सहा ज़लज़ला,
तटों पर सुनामी क़हर हो गई।
सियासत कबूली जो मज़लूम ने,
तो रोटी-लँगोटी महर हो गई।