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सावन ! / गोपीकृष्ण 'गोपेश'
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सावन के दिन सूने - सूने,
यह गरम हवा, यह कड़ी धूप !
सोचा था — बीता जेठ मास,
आया असाढ़, आया सावन,
जल बरसेगा, अब हरा - भरा
हो जाएगा यह मेरा मन —
वह पानी भरने जाएगी,
भर जाएगा वह, वहाँ, कूप !
सावन के दिन सूने - सूने,
यह गरम हवा, यह कड़ी धूप ! !
सोचा था — रिमझिम - रिमझिम कर
जब बरसेंगे काले बादल,
उस मधुवन में झूला होगा,
झूला झूलेगी वह चंचल,
मैं इन्द्र - धनुष बन अम्बर से
आँकूँगा उसकी छवि अनूप !
सावन के दिन सूने - सूने,
यह गरम हवा, यह कड़ी धूप ! !
सोचा था — अन्तर की ज्वाला
वन की मेंहदी बन जाएगी,
वह रच-रच अपने हाथों से
जब अपने हाथ रचाएगी,
चिर जरा-ग्रस्त साधें मेरी
होंगी यौवन का आदि - रूप !
सावन के दिन सूने - सूने,
यह गरम हवा, यह कड़ी धूप ! !