भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं रात का आख़िरी जज़ीरा / सुरजीत पातर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:02, 12 मई 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरजीत पातर |अनुवादक=चमन लाल |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मैं रात का आख़िरी ज़ज़ीरा (द्वीप)
घुल रहा हूँ, विलाप करता हूँ
मैं मारे गए वक़्तों का आख़िरी टुकड़ा हूँ
ज़ख़्मी हूँ
अपने वाक्यों के जंगल में
छिपा कराहता हूँ
तमाम मर गए पितरों के नाख़ून
मेरी छाती में घुपें पड़े हैं ।
ज़रा देखो तो सही
मर चुकों को भी ज़िन्दा रहने की
कितनी लालसा है ?
पंजाबी से अनुवाद: चमन लाल