भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बीच का बसन्त / विजयदेव नारायण साही

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:56, 2 अगस्त 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजयदेव नारायण साही |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीते हुए कुंचित कुतूहल औ’
आने वाले तप्त आलिंगन के
बीच हम तुम जैसे
प्यास सहलाती मीठी ममता में बहते हैं
वैसे ही
कुहराए शीत और उष्णवायु आतप के
बीचोंबीच कसा यह
मौसम गुलाबी है ।

शुभ हो बसन्त तुम्हें
शुभ्र, परितृप्त, मन्द-मन्द हिलकोरता ।

ऊपर से बहती है सूखी मण्डराती हवा
भीतर से न्योतता विलास गदराता है
ऊपर से झरते हैं कोटि-कोटि सूखे पात
भीतर से नीर कोंपलों को उकसाता है
ऊपर से फूट से हैं सीठे अधजगे होंठ
भीतर से रस का कटोरा भरा आता है
बीच का बसन्त यह
वैभव है अद्वितीय
डूब-डूब जीना इसे
मन में सँजोना
यहीं लौट-लौट आना, वह जाना, सींच देना प्राण
इतना कि रग-रग में ममता-सा बस जाए ।

जीवन में कभी भी जो
प्यार का यह आदिम प्रकाश-पुँज
कटुता से, संशय से, आतुर हताशा से
मद्धिम पड़ जाएगा —
तब यह जिलाएगा :

शुभ हो बसन्त तुम्हें
भेंटता पवित्र, मन्द-मन्द हिलकोरता ।