भगाना है किरणों से मार-मार कर
कमरे में बचे हुए अँधियारे को।
भूख झाँक रही है बेशर्म नरदौआ में से,
रोग रो रहा है आँखों के सामने।
खदेड़ना है सभी को जीवन के अगल-बगल से।
यह उन्मुक्त हँसी,
किसी की कुटिलता उधार माँग कर चिपकाई हुई नहीं है हमने चेहरे पे,
गिराकर ही छोड़ेंगे,
पहाड़ की चोटी के ऊपर लुकाछिपी खेलते रहने वाले सूरज को एक दिन,
मामूली-सा वो बादल कब तक ढँक के रख सकेगा उजियारे को?
हम हर चेहरे पे सुकुमार सूर्योदय का इंतजार कर रहे हैं।
लिख ही लेंगे कविता तो,
बस, पहले उभर लें पेट मादल की तरह,
थोड़ी सी हँसी बिखर जाए सुनसान गलियारों में,
जहाँ से आई हो, उधर ही लौट जाए चेतन में लगने वाली सर्दी व छींक।
कविता तो लिख ही लेंगे फिर कभी भी।
बहुत गा लिया दुःख की सिसकियों का धुन में,
अब पता हुआ, गीत गाने के अभिनय में
हम तो शोकगीत गुनगुना रहे थे आज तक,
अपने ही हृदय की वेदनाओं को निचोड़कर।
अब करना है –
इन सारे शोकगीतों का पोस्टमार्टम,
और निकालना है पीड़ा के विषाणुओं को जिंदगी के कोनों से।
ढूँढना है नए समय के लिए नई-नई धुनों को।
गीत तो फिर भी हमें गाना ही है।
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