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आज रात इस अंधकार में / मरीना स्विताएवा

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('निद्रा-रोग' कविता-क्रम से)

आज रात इस अंधकार में
अकेली हूँ मैं उनींदी, बेघर संन्यासिन ।
आज रात मेरे हाथों में
चाभियाँ हैं राजधानी के सब द्वारों की ।
इस पथ पर ढकेला है मुझे निद्रा-रोग ने ।
कितने सुन्दर हो तुम, ओ निष्प्राण क्रेमलिन !
आज रात मैं चूमती रहूँ वक्ष-
पूरी-की-पूरी युद्धरत पृथ्वी का ।

रोंगटे नहीं, खड़े होते हैं फ़रकोट के बाल,
दमघोंटू हवा घुस आती है सीधे हृदय में ।
आज रात तरस आ रहा है मुझे उन सब पर
जिन पर तरस करते और जिन्हें चूमते हैं लोग ।


रचनाकाल : 1 अगस्त 1916

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह