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हरेक की रात / मरीना स्विताएवा

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हरेक की ओर बढ़ाने के लिए मुझे मिले हैं दो हाथ,
नाम लेने के लिए मुझे मिले हैं दो होंठ,
दिखती नहीं आँखें, ऊँची हैं उन पर भौंहें-
प्रेम से अधिक अप्रेम पर होता है आश्चर्य ।

और क्रेमलिन के घण्टों से भी भारी घण्टा
बज रहा है मेरी छाती में अविराम !
किसे मालूम...यह ?
मुझे नहीं मालूम,
सम्भव है मातृभूमि का मुझे
मिलेगा नहीं आतिथ्य अधिक ।


रचनाकाल : 2 जुलाई 1916

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह