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नक़ाब / ऋचा दीपक कर्पे

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जानती हूँ
कि बहुत सारी लड़ाइयाँ
लड़ रहे हो तुम भी
भीतर ही भीतर

बहुत सारे सवालों में
उलझे हुए रहते हो
दिन भर

लेकिन पुरूष हो ना,
मेरे कंधे पर सर रख कर
रो ना सकोगे कभी
अपने ज़ज्बातों को अल्फ़ाज़
दे ना सकोगे कभी

चलते रहते हो
मुस्कुराहट का
एक नक़ाब लगाए
यह सोचकर
कि पढ़ नहीं सकेगा
तुम्हें कोई!

लेकिन,
यह भूल रहे हो तुम,
कि एक स्त्री
झाँक सकती है
तुम्हारे भीतर तक
जान सकती है
तुम्हारे कहे बिना सब कुछ

तब तो और भी यकीनन
जब उसे प्यार हो तुमसे!