सौप्तिक पर्व / तृष्णा बसाक / लिपिका साहा
मृत्यु की भगिनी सम भयंकर एक अस्त्र
मेरे हृदय को भेद गया
क्या करूँ मैं समझ न आया
हृदय ने अनन्त काल की एक वेदना को
जाने कैसे कृष्णवट की भाँति सँजोकर रखा है।
मुझे कहीं जाना नहीं, जाना था भी नहीं
वह घोर युद्ध
मेरी स्मृति में था
याद है मुझे एकबार युद्ध के मध्य
सैनिक कैसे अल्प क्षण के लिए सो गए थे
और सुप्त वे किसी चित्र की भाँति दिख रहे थे
रात्रिकालीन युद्ध में पदातिक दिखा रहे थे बाती
रथ, अश्व, गज, सर्वत्र ही दीप
तथापि कितना अन्धकार, निःसीम अन्धकार !
वेश्या शिविर भी दूर नहीं कर सके उस तमिस्रा को
याज्ञसेनी, तुम तो जगी थीं
प्रतिशोध स्पृहा ने जगाए रखा था तुमको
इतने वर्षों बाद, कितने ही निद्रा, जागरण, विभ्रम पार करके
शायद तुम उत्तर दे सको,
क्यों तुम्हारे पातालस्पर्शी केश ढँक नहीं सके इन शवों को !
मूल बांग्ला से अनुवाद : लिपिका साहा