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नहीं है गंतव्य कोई / संतोष श्रीवास्तव

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असत्य से सत्य की ओर
तमस से प्रकाश की ओर
पृथ्वी के छोर तक
चलती है अनवरत

देखती है
मनुष्य के विवेक पर
खतरा बड़ा
खड़ी हो जाती है
अपनी तन्वंगी काया की
भरपूर शक्ति से
समझाती, टोकती
राह दिखाती

झोपड़ी से राजपथ तक
पगडंडी से सत्ता के
गलियारे तक
सदियों से यात्रा पर है
चिंतित कविता
नहीं है कोई
गंतव्य उसका