भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुझे लोग गुनगुनाएँगे / वीरेन्द्र वत्स

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:51, 10 जुलाई 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र वत्स |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी किताब में सिमटी हुई ग़ज़ल की तरह
न घर में बैठ तुझे लोग गुनगुनाएँगे
 
तू इन्क़लाब है किस्मत संवार सकती है
ये जंगबाज़ तेरी पालकी उठाएँगे
 
ये तेरी उम्र, तेरा जोश, ये तेरे तेवर
बुझे दिलों में नया ज़लज़ला जगाएँगे
 
फटी ज़मीन तो शोले उठेंगे सागर से
कहाँ तलक वो तेरा हौसला दबाएँगे
 
झुका-झुका के कमर तोड़ दी गई जिनकी
वो आज मिलके ज़माने का सिर झुकाएँगे