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कुछ पल और ठहर जा साथी / अमन मुसाफ़िर

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कुछ पल और ठहर जा साथी
वर्षों के इस विरह मिलन पर,मेरी आँखें नम होने दे

सूर्य किरण सम प्रेम द्वार पर आए आकर चले गए
मन के सूखे जंगल में तुम आग लगाकर चले गए
आशाओं की लौ देकर सपनों को तप्त किया था तुमने
कँपते,सूखे,घबराते अधरों को तृप्त किया था तुमने
नयनों की भाषा समझाई समझाई नैनों की बोली
आँखों के वो स्वप्न बराती कजरारी अँखियों की डोली
समझा करके प्रेम समर्पण जाने फिर तुम कहाँ गए
सब कुछ अपना करके अर्पण जाने फिर तुम कहाँ गए

मेरे अन्तर्मन के पट पर पृथक-पृथक जो चित्र बनातीं
मुझको पृथक प्रलोभन देतीं स्मृतियों को कम होने दे

नहीं पूछना मुझको तुमसे आखिर क्या मजबूरी थी
नहीं पूछना मेरे बिन क्या दुनिया बहुत अधूरी थी
बस मुझको इतना बतला दो नींद तुम्हें क्या आती है
रात ये काली अँधियारी क्या सारी रात जगाती है
क्या तुमको मेरे बिन घर में रहना बेघर लगता है
क्या तुमको भी सपनों के खो जाने का डर लगता है
मुझे सब्र है जीवन रण में कुछ पल तो हम संग रहे
कुछ में रंग भरा तुमनें कुछ याद चित्र बेरंग रहे

व्यथित कंठ यह शोर करे पलकों की पीड़ा बिलख उठी
सहसा कोई न सुन ले रुक ! खामोशी का आलम होने दे