भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विवेकहीन दिन / मरीना स्विताएवा
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:40, 29 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मरीना स्विताएवा |संग्रह=आएंगे दिन कविताओं के / म...)
विवेकहीन, अनैतिक है मेरा यह दिन :
भिखारी से मांगकर रोटी की भीख
दान करती हूँ उसे निर्धन धनी को ।
सुई में से गुज़ारती हूँ किरणें
डाकुओं के हाथों थमाती हूँ चाबी
निष्प्रभ मुख पर फेरती हूँ आभा ।
भिखारी मुझे रोटी नहीं देता
धनी मुझ से पैसा नहीं लेता
सुई के छेद में से गुज़रती नहीं किरणें ।
डाकू घुसता है बिना चाबी के,
तीन धाराओं में बहते है बुद्धू लड़की के आँसू
अर्थहीन, घटनाहीन इस दिन पर ।
रचनाकाल : 20 जुलाई 1918
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह