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उजाला / साधना सिन्हा
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मन तो सतरंगी
भटका, ताना बाना
उजला कभी
उच्छल बन
बिखरा
फिर अंधकार में
निमग्न अंतर
डूबे ही जाता क्यों
निरंतर
दुख के छोटे–छोटे
अंधियारे
तो हैं सबके
अपने अंदर
खिड़की के बाहर
बाट जोहती
सूरज की ऊनी-ऊनी किरण
चमेली की भीनी-भीनी गंध
आकुल है
आने को अंदर
पंछी चहकेंगे
जब होगा उजाला
खोलो
बंद पटल