भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने अकेले होने को / विनोद कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:38, 9 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनोद कुमार शुक्ल |संग्रह= }} <Poem> अपने अकेले होने...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


अपने अकेले होने को
एक-एक अकेले के बीच रखने
अपने को हम लोग कहता हूँ।
कविता की अभिव्यक्ति के लिए
व्याकरण का अतिक्रमण करते
एक बिहारी की तरह कहता हूँ
कि हम लोग आता हूँ
इस कथन के साथ के लिए
छत्तीसगढ़ी में- हमन आवत हन।

तुम हम लोग हो
वह भी हम लोग हैं।