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और भी खुश लुटेरे हुए / जहीर कुरैशी
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और भी खुश लुटेरे हुए
इतने गहरे अँधेरे हुए
याद आते ही मन में मेरे
दु:ख के बादल घनेरे हुए
ताल में सड़ गईं मछलियाँ
इसलिए चुप मछेरे हुए
कल जो शाही महल थे वो आज
भूत-प्रेतों के डेरे हुए
जब बहस व्यक्तिगत हो गई
शब्द-शर ‘तेरे’ ‘मेरे’ हुए
नागिनें द्वैत में फँस गईं
इतने ज़्यादा सपेरे हुए
हम गरीबों के संग भूखके
रोज़ ही, सात फेरे हुए.