भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूसरों के भ्रामक सौन्दर्य / मरीना स्विताएवा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:34, 25 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मरीना स्विताएवा |संग्रह=आएंगे दिन कविताओं के / म...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूसरों के भ्रामक सौन्दर्य की ओर
मेरे पास से गुज़रते हुए तुम
काश, जान पाते- कितनी आग
और कितनी गँवाई है मैंने उम्र !

कितना दिखाया साहस- उत्साह
अचानक दिखी छाया और फड़फड़ाहट पर
किस तरह हृदय ने राख कर दिया
बारूद का ढेर मेरी ख़ातिर।

ओ रात की ओर भागती गाड़ियो,
श्टेशन पर से सपनों को उठा ले जाती गाड़ियो
मालूम है मुझे कि तब भी
समझ नहीं पाती तुम :

क्यों हैं मेरे शब्द इतने तीखे
सिगरटों के शाश्वत धुएँ में,
कितने आलोकहीन और भयानक हैं दुख
सफ़ेद बालों से ढके मेरे सिर के भीतर !

रचनाकाल : 17 मई 1913

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह